Monday, October 24, 2011

तुम युग पुरुष हो....


(मेरी यह कविता उन महानुभावों को समर्पित है जो आज के जारी देशव्यापी आंदोलन के शिरमौर हैं, और जो स्वयं को युगपुरुष मानते हैं।)

तप्त अग्नि में जलो
स्वर्ण से कुंदन बनो।
निस्पृह रहो, निःस्वार्थ हो,
निष्काम तप योगी बनो।
तुम युगपुरुष हो।1।

तुम प्रश्न करते विश्व से तो
विचलित न हो खुद प्रश्न से।
जो उपदेश देते पार्थ को तो
बनो सारथी तुम कृष्ण से।
तुम युगपुरुष हो।2।

उदाहरण जो देते नीति का
न्याय का, आचार का।
प्रस्तुत उदाहरण प्रथम बनो
खुद आचरण-व्यवहार का।
तुम युग पुरुष हो।3।

बोझों तले हम सब दबे हैं,
पाखंड के, बहुवाद के।
अनुशासित करो स्वविकार तुम
आचरण प्रवचन विभेद के।
तुम युगपुरुष हो।4।

भवन-नींव,वट-वृक्ष बीज
करते न दंभाडंबर प्रदर्शन।
आधार बनते,स्वरूप देते
हो धरा में समाधिस्त-मौन।
तुम युगपुरुष हो।5।

बनो ज्ञेय तुम अविकार बनो,
करो स्नेह तुम सत्कार करो
संयम रखो,सक्षम बनो
प्रेमोदार तव व्यवहार हो।
तुम युग पुरुष हो।6।

1 comment:

  1. युगपुरुष को शब्दों की आग में तपना पड़ता है।

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