वर्ष 1984 ,जब मैं इलाहाबाद युनिवरसीटी में बी.एस.सी का छात्र
था, हिंदी विभाग के 60 वर्ष पूरे होने के
उपलक्ष्य में विभाग ने हीरक जयंती समारोह का आयोजन किया था।समारोह के आयोजन की व्यवस्था
हेतु छात्र वालंटियर्स में मैं भी नामित था, जिसे मैं आज भी अपने जीवन का परम
सौभाग्य मानता हूँ।
समारोह युनिवरसीटी के आर्ट फैकल्टी के
सभागार में आयोजित किया गया था। समारोह सप्ताह भर चला था, और इसमें हिंदी साहित्य
की अनेकों महान विभूतियाँ पधारी थीं – कुछ महान विभूतियाँ जिनका नाम मुझे स्मरण है
और जिनका दर्शन व चरणरज प्राप्त करने का मुझे सौभाग्य मिला जैसे- डा. राम कुमार
वर्मा, डा. धर्मवीर भारती, जैनेन्द्र,प्रभाकर माचवे,उपेन्द्र नाथ अश्क, अज्ञेय जी
थे।समारोह में और भी अनेकों महान विभूतियाँ आयीं थीं, जिनका अब मैं नाम स्मरण नहीं
कर पा रहा हूँ। यदि मुझे ठीक से स्मरण है तो वहाँ डा.महादेवी वर्मा ,जो काफी
अस्वस्थ चल रही थीं, अपने व्हील-चेयर में पधारी थीं। इस सौभाग्य का जोश व संतोष मैं
अब भी अनुभव करता हूँ।
मुझे स्मरण आता है कि एक दिन के संध्या सत्र,जिसकी अध्यक्षता अज्ञेय जी को
करनी थी, हेतु तैयारी जैसे-स्टेज को ठीक करना, पिछले सत्र के दौरान अस्त-व्यस्त
कुर्सियों को ठीक करना,माइक टेस्ट इत्यादि में हम सभी वालंटियर्स व्यस्त थे। चूँकि
सत्र को शुरू होने में अभी समय था, अतः विभागाध्यक्ष डा. राजेन्द्र गुप्त व आयोजन
समिति के अन्य सदस्य, प्रोफेसरगण भी वहाँ उपस्थित नहीं थे , और वे कुछ समय बाद
सभागार में आनेवाले गणमान्य साहित्यकारों, कवियों, अतिथियों के सत्कार हेतु उपस्थित होने वाले थे।
सभागार में कुछ छिटपुट अतिथि, श्रोतागण आने
शुरू हो गये थे, व अपना यथोचित स्थान ग्रहण कर रहे थे।तभी अचानक हमारी दृष्टि सभागार के मुख्य द्वार की
दिशा में गयी और देखते हैं कि एक व्यक्ति,ऊंचे कद के गौर वर्ण, सफेद छँटी मझोल दाढ़ी ,बंद
गले की काले रंग की कोट पहने,बगल में एक पतली सी फाइल दबाये, आधुनिक ऋषि तुल्य
दिखते, शांत खड़े , हमें वहाँ की चीजों को व्यस्थित करते , देख रहे हैं।तब तक वहाँ उपस्थित किसी
सज्जन ने, जो कि युनिवरसीटी के ही फैकल्टी सदस्य थे एवं स्वयं एक प्रतिष्ठित
साहित्यकार थे, उन महान विभूति को पहचानते
हुये बोले- अरे ये तो अज्ञेय जी हैं,और हड़बड़ी में उनकी ओर दौड़ते हुये पहुंचे,
उनको प्रणाम किया।
तब तक हम सब भी अपना सब काम छोड़, अति
उत्साह से भरे उनके समीप पहुँच कर उनका
चरणरज लेते प्रणाम करने लगे।
प्रोफेसर महोदय, मंच की और करबद्ध व स्वागत
भाव से हाथ से इंगित करते,अज्ञेय जी से मंच पर अध्यक्ष का आसन का ग्रहण करने का
अनुरोध करने लगे। किंतु अज्ञेय जी ने बड़े संयत भाव से उन्हे समझाते हुये , कि मंच
पर सत्र शुरू होने के बाद ही आसन लेना उचित होगा,पीछे रखी एक साधारण श्रोताओं की
कुर्सी पर ही शांति से बैठ गये, और आयोजन के शुरू होने की प्रतीक्षा करने लगे।
हम सभी उनकी उपस्थिति की उत्तेजना,उत्साह व
उनके सौम्य दर्शन हेतु उनके समीप स्तब्ध व सुखद आश्चर्य मुद्रा में खड़े थे। मुख
पर स्मित मुस्कान लिये उन्होने आयोजन में
समय से पूर्व पधारने,और हमारी व्यवस्था
तैयारी में व्यवधान डालने के लिये अपना क्षमा-भाव दिखाते हुये हमें अपना –अपना काम करते
रहने व निर्व्यवधान वहाँ की व्यवस्था का काम सम्पन्न करने का आग्रह करने लगे।
अज्ञेय जी की उस सत्र की अध्यक्षता, व उनका
सत्र के समापन में अपनी एक कविता का पाठ मेरे स्मृति कोश की अमूल्य निधियों में
प्रमुख है।
मंच द्वारा उनकी सुनायी कविता- बड़ी लम्बी राह,
जो मेरी स्मृति में आज भी ताजातरीन है और यह मेरी प्रिय कविताओं में से एक है, मैं
अपने पाठक गणों से साझा करता हूँ। आशा है आप को भी यह पसंद आयेगी।
बड़ी लम्बी राह / अज्ञेय
न देखो
लौट कर पीछे
वहाँ कुछ नहीं दीखेगा
न कुछ है देखने को
उन लकीरों के सिवा, जो राह चलते
हमारे ही चेहरों पर लिख गयीं
अनुभूति के तेज़ाब से
राह चलते
बड़ी लम्बी राह।
गा रही थी एक दिन
उस छोर बेपरवाह,
लोभनीय, सुहावनी, रूमानियत की चाह
--अवगुण्ठवमयी ठगिनी !—
एक मीठी रागिनी
बड़ी लम्बी राह।
आज सँकरे मोड़ पर यह
वास्तविक विडम्बना
रो रही है :
एक नंगी डाकिनी
बड़ी लम्बी राह : आह,
पनाह इस पर नहीं—
कोई ठौर जिस पर छाँह हो।
कौन आँके मोल उस के शोध का
मूल्य के भी मूल्य की जो थाह पाने
एक मरु-सागर उलीच रहा अकेला ?
जल जहाँ है नहीं
क्या वह अब्धि है ?
रेत क्या
उपलब्धि है ?
बड़ी लम्बी राह। जब उस ओर
थे हम, एक संवेदना की डोर
बाँधती थी हमें—तुम को : और हम-तुम मानते थे
डोरियाँ कच्ची भले हों, सूत क्योंकि
पुनीत है, उन से बँधे
सरकार आयेंगे चले
बड़ी लम्बी राह ! अब इस ओर पर
संवेदना की आरियाँ ही
मुझे तुम से काटती हैं :
और फिर लोहू-सनी उन धारियों में
और राहों की अथक ललकार है।
और वे सरकार ? कितनी बार हम-तुम और जायेंगे छले !
वहाँ कुछ नहीं दीखेगा
न कुछ है देखने को
उन लकीरों के सिवा, जो राह चलते
हमारे ही चेहरों पर लिख गयीं
अनुभूति के तेज़ाब से
राह चलते
बड़ी लम्बी राह।
गा रही थी एक दिन
उस छोर बेपरवाह,
लोभनीय, सुहावनी, रूमानियत की चाह
--अवगुण्ठवमयी ठगिनी !—
एक मीठी रागिनी
बड़ी लम्बी राह।
आज सँकरे मोड़ पर यह
वास्तविक विडम्बना
रो रही है :
एक नंगी डाकिनी
बड़ी लम्बी राह : आह,
पनाह इस पर नहीं—
कोई ठौर जिस पर छाँह हो।
कौन आँके मोल उस के शोध का
मूल्य के भी मूल्य की जो थाह पाने
एक मरु-सागर उलीच रहा अकेला ?
जल जहाँ है नहीं
क्या वह अब्धि है ?
रेत क्या
उपलब्धि है ?
बड़ी लम्बी राह। जब उस ओर
थे हम, एक संवेदना की डोर
बाँधती थी हमें—तुम को : और हम-तुम मानते थे
डोरियाँ कच्ची भले हों, सूत क्योंकि
पुनीत है, उन से बँधे
सरकार आयेंगे चले
बड़ी लम्बी राह ! अब इस ओर पर
संवेदना की आरियाँ ही
मुझे तुम से काटती हैं :
और फिर लोहू-सनी उन धारियों में
और राहों की अथक ललकार है।
और वे सरकार ? कितनी बार हम-तुम और जायेंगे छले !
बहुत सुन्दर लगी आपकी यह अनुपम प्रस्तुति.
ReplyDeleteनवरात्रि के पावन पर्व की हार्दिक शुभकामनाएँ.
लम्बी राहों की अनिश्चितता और उन पर खो जाने का भय जीवन को रह रहकर एक उछाह देती रहती है।
ReplyDeleteन देखो लौट कर पीछे
ReplyDeleteवहाँ कुछ नहीं दीखेगा
न कुछ है देखने को
उन लकीरों के सिवा, जो राह चलते
हमारे ही चेहरों पर लिख गयीं
अनुभूति के तेज़ाब से
अज्ञेय जी की कविता के भाव कालजयी हैं, संस्मरण साझा करने के लिये बहुत आभार.
रामराम
अज्ञेय जी को मैंने बहुत पढ़ा उनके बारे में जानकर बहुत अच्छा लगा।
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