Saturday, October 15, 2011

देने का सुख


मेरे सहकर्मी व प्रिय मित्र श्री प्रवीण पाण्डेय जी से सौभाग्यवश प्राय: जीवन के विभिन्न विषयों पर विशेष चर्चा व विचार आदान-प्रदान का सुख मिलता रहता है। कल बातचीत में ही उन्होंने एक बड़ी महत्वपूर्ण बात कही कि- पितृत्व यानि किसी का पालन-पोषण व उसे शिक्षित कर मूल्यपरक जीवन जीने योग्य बनाना हमारे जीवन का श्रेष्ठतम् कर्तव्य-निर्वाह है।उनका यह चिंतन-प्रेरक विचार सुन, मेरे मन में कुछ खास विचारदृश्य मनपटल पर सहसा जागृत हो आये।


मेरा अनुभव है कि कुछ व्यक्तियों से मिलना या उनका दर्शन एक विशेष प्रकार की शांति,संतुष्टि व एक आध्यात्मिक सुख प्रदान करता है- जैसेः अपने अबोध शिशु की देखभाल,उसके सुकुमार शरीर की सुश्रुषा व क्षुधा-पूर्ति में एकाग्रचित्त उसकी माँ, अपने छात्रों के प्रति सहृदय व पूर्ण समर्पित कुछ अध्यापकगण, मंदिर,चर्च या गुरुद्वारे के कुछ पुजारी , अपने मरीजों के प्रति पूर्ण समर्पित व सहृदय व आत्मीय कुछ डॉक्टर ।

इनसे मिलकर व इनके चेहरे पर दृष्टिपात करते ही ऐसा अनुभव व चुम्बकीय आकर्षण उत्पन्न होता है, मानों बस स्वयं ईश्वर से ही साक्षात्कार हो रहा है। इन व्यक्तियों की स्वच्छ आखों में एक विशेष प्रकार  का प्रकाश जो करुणा,प्रेम व संतोष की सम्मिलित शीतल चंद्र किरणों की आभा व शांति लिये होता है,इतनी आत्मीयता प्रदान करता है कि बस निगाहें इनके चेहरे से हटना ही नहीं चाहतीं.और मन  उनके इस दर्शन में इतना आत्मसात हो जाता है कि बस यही कामनामय हो जाता है कि यह दर्शन लगातार सामने बना रहे , कभी भी सामने से ओझल न होने पाये।कभीकभी तो झेंपने की स्थिति तक मैं एकटक इन व्यक्तियों के दर्शन होने पर उन्हे निराहने में आसक्त हो जाता हूँ।

तो प्रवीण जी के विचारों और मेरे इन विशेष व्यक्तियों की दर्शन से उपजी अनुभूति में एक विशेष सामंजस्य यह अनुभव होता है कि नि:स्वार्थ भाव से ,बिना किसी अपेक्षाभाव के सेवा,सुख या अन्य की जीवन-आवश्यक-आवश्यकताओं को पूरा करने का कर्तव्य निर्वाह ही श्रेष्ठतम् है, व इसका निष्पादन करके हमें अद्भुत संतुष्टि,आत्मिक शांति व एक आध्यात्मिक सुख मिलता है।

इस परम दैवीय सुख की प्राप्ति से हमारा रोम-रोम,शरीर की प्रत्येक कोशिका पुलकित व प्रफुल्लित हो उठती है,जिसकी आभा व कांति हमारे चेहरे पर प्रतिबिंबित हो जाती है।यही कारण है कि ये प्रासंगिक व्यक्ति विशेष आभा व प्रदीप्त मुखमंडल युक्त होते हैं, व इनसे मिलना व दर्शन शांति व अति प्रसन्नतादायक होता है।

जब निःस्वार्थ देने की प्रवृत्ति से कोई कर्तव्य निर्वाह होता है, तो स्वाभाविक रूप से उसमें शुभता व सुंदरता आ ही जाती है- यही कारण है कि हरे भरे छायादार व फलदार वृक्ष,बाग में खिले सुंदर व सुगंध बिखेरते रंग-बिरंगे पुष्प,खेत में लहलहाती फसलें, स्वच्छ नीर वाली बहती नदी,क्षितिज पर उदित हो रहा रवि,या पूर्णिमा की रात में धवल चाँदनी बिखेरता चंद्रमा हमारे लिये सुंदरतम्,मनोहरतम् ,व सुख-शांति की पराकाष्ठा प्रदान करने वाले दृश्य होते हैं।शिव का भी सुंदरतम् रूप इसी लिये माना गया है कि वे सबसे उदार होकर हमारी कामनापूर्ति करते हैं।

ईश्वर हमें निरंतर देते रहने, जीवन में हमें प्राप्त हुये शुभ प्रसाद को सबमें बाँटते रहने, की अक्ष्क्षुण क्षमता व सुख से सम्पन्न रखे, यही हार्दिक मनोकामना व प्रार्थना है।

5 comments:

  1. बहुत ही श्रेष्‍ठ विचार। ग्रहण करने योग्‍य।

    ReplyDelete
  2. आप हमारे लिये आनन्द का कारण बनते रहते हैं और श्रेय भी दे देते हैं, यह तो कृतज्ञता तले दबा दिया आपने।

    ReplyDelete
  3. दृष्टि और सोच का फर्क है। देने वाला हमेशा सुंदर लगता है मगर पापी मन उनसे देने का गुण नहीं सीखता...और पाना ही चाहता है। आपने सहजता से देना सीखने, सेवा भाव अपनाने की सीख दी।..आभार।

    ReplyDelete
  4. आपसे पूर्णतयः सहमत. सही विचार है.

    ReplyDelete
  5. बहुत सार्थक सोच और अनुकरणीय विचार..

    ReplyDelete