कुछ दिन पूर्व कविता कोश http://www.kavitakosh.org के लोकगीत संकलन में मुझे एक भोजपुरी लोकगीत पढ़ने को मिला, तो मुझे
ध्यान आया कि यह लोकगीत बचपन में, मैं अपने गाँव में प्रायः किसी अवसर पर गाँव की
महिलाओं द्वारा गाते सुनता था। किस अवसर पर महिलायें यह गीत गाती थीं, यह तो
ठीक-ठीक याद नहीं आता , शायद लड़कियों की शादी के अवसर पर गीत की रस्म पर गाती
थीं।
गीत में एक बेटी की माता-पिता व समाज की
बेटे-बेटी के लालन-पालन, परवरिश, शिक्षा-दीक्षा , व आर्थिक-सामाजिक स्थान व न्याय देने में किये
जाने वाले लिंग भेद व पक्षपात के प्रति , अंतर्व्यथा बड़े मार्मिक ढंग से चित्रित
किया गया है। मुझे स्मरण आता है कि कुछ ऐसे गीतों को गाते , व गीत की मार्मिकता
में तन्मय, महिलायें गाते-गाते फफक-फफक कर रोने भी लगती थीं।
गीत के बोल कुछ इस
प्रकार हैं-
एके कोखी[1] बेटा जन्मे एके कोखी बेटिया
दूइ रंग नीतिया[2]
काहे कईल[3] हो बाबू जी
दूइ रंग नीतिया
बेटा के जनम में त सोहर गवईल अरे सोहर गवईल[4]
हमार बेरिया, काहे मातम मनईल हमार बेरिया[5]
दूइ रंग नीतिया
काहे कईल हो बाबू जी
दूइ रंग नीतिया
बेटा के खेलाबेला[6] त मोटर मंगईल अरे मोटर मंगईल
हमार बेरिया, काहे सुपली मऊनीया[7] हमार बेरिया
दूइ रंग नीतिया
काहे कईल हो बाबू जी
दूइ रंग नीतिया
बेटा के पढ़ाबेला[8] स्कूलिया पठईल अरे स्कूलिया पठईल[9]
हमार बेरिया, काहे चूल्हा फूँकवईल हमार बेरिया
दूइ रंग नीतिया
काहे कईल हो बाबू जी
दूइ रंग नीतिया
बेटा के बिआह में त पगड़ी पहिरल[10] अरे पगड़ी पहिरल
हमार बेरिया, काहे पगड़ी उतारल[11] हमार बेरिया
दूइ रंग नीतिया
काहे कईल हो बाबू जी
दूइ रंग नीतिया
एके कोखी बेटा जन्मे एके कोखी बेटिया
दूइ रंग नीतिया
काहे कईल हो बाबू जी दूइ रंग नीतिया
दूइ रंग नीतिया[2]
काहे कईल[3] हो बाबू जी
दूइ रंग नीतिया
बेटा के जनम में त सोहर गवईल अरे सोहर गवईल[4]
हमार बेरिया, काहे मातम मनईल हमार बेरिया[5]
दूइ रंग नीतिया
काहे कईल हो बाबू जी
दूइ रंग नीतिया
बेटा के खेलाबेला[6] त मोटर मंगईल अरे मोटर मंगईल
हमार बेरिया, काहे सुपली मऊनीया[7] हमार बेरिया
दूइ रंग नीतिया
काहे कईल हो बाबू जी
दूइ रंग नीतिया
बेटा के पढ़ाबेला[8] स्कूलिया पठईल अरे स्कूलिया पठईल[9]
हमार बेरिया, काहे चूल्हा फूँकवईल हमार बेरिया
दूइ रंग नीतिया
काहे कईल हो बाबू जी
दूइ रंग नीतिया
बेटा के बिआह में त पगड़ी पहिरल[10] अरे पगड़ी पहिरल
हमार बेरिया, काहे पगड़ी उतारल[11] हमार बेरिया
दूइ रंग नीतिया
काहे कईल हो बाबू जी
दूइ रंग नीतिया
एके कोखी बेटा जन्मे एके कोखी बेटिया
दूइ रंग नीतिया
काहे कईल हो बाबू जी दूइ रंग नीतिया
शब्दार्थ:
मैं भी जब लम्बे अंतराल के पश्चात इस गीत से
रूबरू हुआ और अब जब इस गीत के शब्दों व भाव के मतलब व उनकी गंभीरता से भी काफी सरोकार
है, तो मन अनायाश भारी सा हो गया।
हालाँकि शहरों में प्रत्यक्ष रूप में तो काफी हद
तक-यानि बच्चों की परवरिश, शिक्षा-दीक्षा के अवसर देने,व अन्य सामाजिक व आर्थिक
अवसरों की उपलब्धि में , लड़के-लड़कियों के बीच पक्षपात प्रायः कम हुआ है या कह सकते हैं कि नगण्य सा दिखता है,
फिर भी जमीनी सच्चाई क्या है, यह तो आंकड़े ही बता सकते हैं।
हाल ही में सम्पन्न,
2011 की भारत की जनगणना, के सांख्यिकीय आंकड़े भी इस मामले में कोई उत्साहजनक और
स्थिति की कोई सुधरती तस्वीर नहीं देते।देश के अधिकांश राज्यों में दिन पर दिन
गिरते स्त्री-पुरुष संख्या अनुपात इस पूरी सच्चाई को बयान करने के लिये पर्याप्त
लगता है।
और मैं जो स्वयं अनुभव कर व देख पाता हूँ, उसके आधार
पर यह कहना चाहूँगा कि ग्रामीण भारत में
सच्चाई आज भी निश्चय ही कमोवेश वही हे जो इस गीत में बयान है। मैं गाँव में रहने वाले अपने
घर-परिवार , नजदीकी रिश्तेदारों,परिचितों में अब भी प्रायः देखता हूँ कि घर में
बेटी का जन्म होते मुँह लटका लेते हैं,बेटियों की पढ़ाई, लिखाई, शिक्षा-दिक्षा की
उपेक्षा करते हैं,लड़कियाँ गाँव में उपलब्ध स्कूल में जो शिक्षा प्राप्त कर लीं(
हालाँकि इसमें अभिवावकों की गलती कम व विवशता ज्यादा हे क्योंकि गाँवों में शिक्षा,
खासतौर पर उच्च व व्यवसायगत शिक्षा, की
ढाँचागत व्यवस्था, नगण्य के बराबर है ,) वरना तो उनको अल्प आयु में ही बस चौका-चूल्हा,जल्दी
से शादी, और फिर असमय ही कम उम्र में माँ बनने की जिम्मेदारी में झोंक दिया जाता
हैं।
गाँव के इस पुराने लोकगीत, जो बचपन में महिलाओं के
गीत में सुनता आया था , और आज इसे बहुत दिनो के बाद फिर से पढ़कर मन तो भारी सा हो गया
है, किंतु इस इक्कीसवीं शताब्दी में भारत की उन्नतशील आर्थिक शक्ति के मद्देनजर,
मन में एक उम्मीद व विश्वास भी जगता है कि एक दिन यह गीत व इसकी
सच्चाई भूतकाल की बात हो जायेगी, व एक ही कोख से जन्मे बेटा व बेटी एक ही समान
होंगे,उन्हे बिना किसी पक्षपात के समान परवरिश, समान शिक्षा-दीक्षा,समान व्यावसायिक
अवसर, समान सामाजिक व आर्थिक स्थान हासिल
होगा।
महात्मा गाँधी अपने विचारों में हमेशा गाँव व शहर
की समान उन्नति, स्त्री व पुरुष दोनों की देश की उन्नति में बराबर की भागीदारी की बात करते थे।
आज बापू के जन्मदिन पर, इस लेख के माध्यम से मैं उन्हे इसी भावना-पुष्प की श्रद्धांजलि अर्पित करता
हूँ।
सुंदर लेख। गाँधी जयंती का सबको शुभकामनायें।
ReplyDeleteसच कहा आपने, सबकी बराबरी की भागीदारी हो।
ReplyDeleteमैं इस बात से सहमत नहीं हूँ की जो काम पुरुष का है वो काम भी महिलाओं को करने दिया जाय लेकिन महिला पुरुष के जन्म के समय भेद भाव निश्चय ही शर्मनाक है...परिवार में बच्चों के संस्कार व इंसानियत की भावना भरने का काम जितना एक महिला यानि मां कर सकती है उतना पुरुष यानि बाप नहीं....भगवान ने भी सामाजिक व मानवीय व्यवस्था को सुचारू ढंग से चलाने के लिए पुरुष को प्रथम व महिला को द्वितीय दर्जा दिया है लेकिन महिलाओं के आत्मसम्मान की कद्र हर हाल में होनी चाहिये लेकिन इसका मतलब ये नहीं की महिलाओं की सीमा रेखा को ख़त्म ही कर दिया जाय.....सीमा रेखा महिलाओं के लिए अत्यावश्यक है तो पुरुषों को भी अपने पत्नी के प्रति बेहद बफादार होना ,महिलाओं के प्रति सम्मान की भावना से भरा होना उतना ही अत्यावश्यक है.....
ReplyDeleteबहुत ही विचारोतेजक और सामयिक आलेख. बहुत शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
समाज के भविष्य के लिये बराबर की भागीदारी होना बहुत जरूरी है।
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