सूर्य के आतप से वाष्पित जो,
जलधि से उच्छ्वासित हो,
करती वह संवेग उर्ध्व अनंत-यात्रा,
शून्य-आलिंगन-प्रेम में द्रवित वह
जलद का करती धारण स्वरूप ,
और अपने प्रेममद के भार से,
बूँद बन निकलती वह
एक और विरह यात्रा पर,
कौन रोक पाया है जल के प्रवाह को ?
|
|
होती वह बूँद समाहित क्षुधित धरा में
और स्थापित होती उसके जल-गर्भ में,
प्रवाहित होती बन पाताल गंगा,
या प्रस्तरों के हृदय के शिराओं से
मौन प्रवाहित हो
धारण कर लेती झरने का स्वरूप
और निस्तारित हो धारा में
बनती वह नदी का प्रवाह ,
एक संघर्षमय यात्रा की नियतिस्वरूप
मिलती वह अगाध जलधि में,
कौन रोक पाया है जल के प्रवाह को?
|
|
मानों भावनाओं का तप्त उद्वेग हो
मन मे घुमड़ आये अनगिनत
वेदनाओं के गम्भीर बादल,
द्रवित हो जलबूँद बन
नयनों से बह निकली
धारा है आँसू की
कपोलों के पथ से
निभाने इक उदास
किंतु अविरल निरंतरमय यात्रा,
सिसकियों के मौन में
अनुनादित यही वेदनाध्वनि कि,
कौन रोक पाया है जल के प्रवाह को?
|
|
Wednesday, October 19, 2011
कौन रोक पाया है जल के प्रवाह को ?
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
जल की धारा सा प्रवाहमय आपकी कविता का प्रवाह।
ReplyDelete